यह समूची सृष्टि एक ही ऊर्जा, एक ही शक्ति से बनी है। यहाँ सब-कुछ एक ही वस्तु से बना है।
जब कभी भी कोई चीज़ आपको परेशान करे, इस एक सिद्धांत पर वापस आओ- कि एक ही ऊर्जा है जिससे सब कुछ बना है। इस सत्य में बहुत सी संभावनाएँ हैं। यह सोच ही आपके लिए बहुत बड़ी राहत लेकर आती है।
जी हाँ, बुद्धि के भी कई प्रकार हैं
बुद्धि तीन प्रकार की होती है :
तामसिक बुद्धि :
ऐसी बुद्धि जो या तो निष्क्रिय है अथवा बिलकुल भी काम नहीं कर रही। यह प्रायः सुप्त अवस्था में होती है, सदैव ऊँघने जैसी मुद्रा में और केवल नकारतमकता में रहने वाली। यह तामसिक बुद्धि है।
राजसिक बुद्धि :
अधिकतर लोगों में राजसिक बुद्धि ही होती है। राजसिक बुद्धि का मतलब है संसार की हर वस्तु को भिन्न मानना। ‘ यह व्यक्ति अलग है’, ‘वह व्यक्ति अलग है’, ‘फ़लाँ व्यक्ति ऐसे व्यवहार करता है’, ‘फ़लाँ महिला उस तरीक़े के व्यवहार करती है’ — इस प्रकार की भिन्नताओं में विचरते रहना। यह सोचना कि बहुत प्रकार के लोग हैं, व्यक्तित्व हैं, तथा इसको ही सच मान लेना। इस प्रकार की सोच कई बार आपको निराश कर देती है और कई बार मदहोश भी। यह राजसिक बुद्धि है।
सात्विक बुद्धि :
इस प्रकार की सोच ही हमारे क्रमिक विकास का ध्येय है। सात्विक बुद्धि सतही भिन्नताओं के मूल में एक ही तत्त्व को देखती है। यही सत्य है। एक ही अंतर्निहित सत्य है। वो यह कि एक ही तत्त्व ने विभिन्न रूपों में आकार लिया है।
कठपुतली का तमाशा
मैं आपको एक उदाहरण देता हूँ। आपने कभी कठपुतली का तमाशा देखा है? एक व्यक्ति पर्दे के पीछे होता है और उसकी उंगलीयों से कठपुतलियों के तार बंधे होते हैं। यही वो व्यक्ति है जो कठपुतलियों से नाच नचवाता है और सामने दर्शकों को भिन्न भिन्न कहानियाँ सुनाता रहता है ।
राजसिक बुद्धि का अर्थ है सभी कठपुतलियों को अलग अलग पात्र के रूप में देखना। सात्विक बुद्धि कहती है कि एक ही व्यक्ति है जो सब गुड़ियों को नचा रहा है। वास्तव में यह एकल पात्र नाटक है।
सात्विक बुद्धि सिर्फ़ एक देखती है, एक ही तत्त्व, एक ही सत्य, एक ही वास्तविकता, एक ही चेतना है जो समस्त सृष्टि का मूल आधार है। जब यह सत्य आपके मन में अच्छे से बैठ जाता है तो आप सांसारिक भिन्नताओं को देखते और उनमें विचरते हुए भी स्थिर बने रहोगे।
जिस घर की नींव अति सुदृढ़ हो, वह भूकंप आने पर धराशाही नहीं हो जाता। इसमें आघात सहने की क्षमता होती है। यह जान लेना कि सब कुछ एक ही चेतना से बना है, भीतर गहरे में पड़े हुए आघात अवशोषक के समतुल्य है।
बुद्धि से परे
यह बुद्धि ही है जो हमारे संकोचों, पसंद-नापसंद, स्वीकृतियों व अस्वीकृतियों को पालती है, और पुनः यह बुद्धि ही है जो हमारी बुद्धिमत्ता, हमारी अंत-प्रज्ञा को प्रकट करती है।
प्रश्न: क्या अंत-प्रज्ञा बुद्धि से परे है?
गुरुदेव: हाँ , किंतु यह बुद्धि ही है जो बुद्धिमत्ता का निवास है।
प्रश्न: क्या भावनाएँ तथा बुद्धि परस्पर विरोधात्मक हैं?
गुरुदेव: वह विरोधात्मक हो सकते हैं।
प्रश्न: जब भी द्वन्द हो तो कौन का बेहतर है?
गुरुदेव: निर्मल बुद्धि द्वन्दों से ऊपर उठ जाती है। निर्मल बुद्धि मन की भावनात्मक अशांति में नहीं फंसती। नहीं तो साधारण बुद्धि अक्सर भावनाओं के रंग में रंग जाती है और कीचड़युक्त जल की तरह अशुद्ध हो जाती है। तब इसमें आपका ‘स्वयं ‘ प्रतिबिम्बित नहीं हो पाता। जबकि शुद्ध बुद्धि, जो शांत व निर्मल हो, उसमें आपका ‘स्वयं’ का प्रतिबिम्ब दिखाई देगा ।
प्रश्न: क्या बुद्धि कर्म से प्रभावित होती है ?
गुरुदेव: शुद्ध, निर्मल बुद्धि को कर्म प्रभावित नहीं करते। मुक्ति का अर्थ ही बुद्धि को शुद्ध करना है। संस्कृत में मति को बुद्धि कहते हैं और जो मुक्त हो जाए उसे बुद्ध कहते हैं।
गुरुदेव श्री श्री रवि शंकर जी कि ज्ञान वार्ता पर आधारित