समाज में तरह तरह के लोग होते हैं। भिन्न भिन्न लोगों के साथ एकतत्त्वाभ्यास कैसे संभव है? भिन्न भिन्न लोगों में एक तत्त्व को कैसे देख सकते हैं?
तब आगे यह बताते हुए महर्षि कहते है :
“सूत्र 33: मैत्रीकरुणामुदितोपेक्षाणां सुखदुःखपुण्यापुण्यविषयाणां भावनातश्चित्तप्रसादनम्॥’’
महृषि पतंजलि संसार के लोगों को चार श्रेणियों में रखते हैं -
- पहले वो लोग जो प्रसन्न हैं।
- दूसरे तरह के लोग जो दुखी हैं।
- तीसरे तरह के लोग कुछ अच्छा काम कर रहे होते हैं।
- चौथी तरह के लोग उतने अच्छे काम नहीं या बुरे काम कर रहे होते हैं।
मैत्री
प्रसन्न लोगों से मैत्री का भाव रखें। यदि तुम प्रसन्न लोगों से मित्रता नहीं रखोगे तब उन्हें देखकर तुम्हें ईर्ष्या का भाव आएगा क्योंकि वो तुमसे अधिक प्रसन्न हैं। परन्तु यदि वही लोग तुम्हारे अपने हों, तुम्हारा उनसे सखा भाव हो, तब ईर्ष्या नहीं आती है।
जब तुम किसी को बहुत प्रसन्न देखते हो और तुम्हें उनसे अपनापन न लगता हो, तब ईर्ष्या आती है। इसीलिए प्रसन्न लोगों से मैत्री का भाव रखना उत्तम है।
करुणा
दुखी लोगों के साथ मैत्री करने से तुम भी दुखी हो जाओगे। इसीलिए महृषि कहते हैं कि दुखी लोगों से मैत्री न करो, उनके प्रति करुणा का भाव रखो। जब कोई दुखी हो और मैत्री भाव के साथ तुम भी दुखी होकर बैठ जाओ, तब तुम उनकी भी कोई सहायता नहीं कर सकते हो। तुम्हें लग सकता है कि उनका दुःख साथ बैठ के बांटना चाहिए पर क्या उसके बाद तुम उनके साथ अपनी प्रसन्नता बाँट सकते हो? यह संभव नहीं है। इसीलिए दुखी लोगों के साथ करुणा का भाव रखो, करुणामयी रहो।
तुम्हें दुखी लोगों को संभालने की युक्ति आनी चाहिए। उनसे ये न कहने बैठो कि "हाँ, आपकी समस्या बहुत बड़ी है, आपका दुःख बड़ा भारी है, ईश्वर ने आपके लिए बड़ी परेशानी कर दी। प्रकृति बहुत निर्दयी है।" ऐसा कहकर आप उन्हें और नीचे धकेलते है।
जो लोग दुखी हैं उन पर तरस मत खाओ। तरस खाने और करुणावान होने में भेद है। हम लोगों पर तरस खा कर उन्हें और नीचे धकेलते हैं, ज्यादातर लोग यही करते हैं। ज़्यादातर हम उनकी दुःख की धारणाओं को और मजबूती देते हैं जो किसी सीमित तर्क पर आधारित होती हैं। क्या तुम ये समझ रहे हो?
किसी को यदि लगता है कि उनके साथ घोर अन्याय हुआ है और वह दुखी होकर स्वयं पर तरस कर रहे हों, ऐसे में यदि तुम उन्हें जाकर बोलो कि तुम्हारे साथ बहुत बुरा हुआ, ऐसा नहीं होना चाहिए था। यह सुनकर वह व्यक्ति भी यही सोचेगा कि देखो मैं सही मानता हूँ, मेरे साथ कितना बुरा हुआ।
ऐसा कर के तुम उन्हें किसी भी तरह से इस सत्य के लिए उठने में कोई सहायता नहीं करते कि यह परेशानी कुछ भी नहीं है। संसार में बहुत लोग उनसे कहीं ज्यादा पीड़ित हैं। मैं यह नहीं कह रहा हूँ कि तुम सीधा ऐसे कहो कि लोग तो न जाने कितना पीड़ित हैं, यह कुछ भी नहीं है। इस तरह से उन्हें गुस्सा आ सकता है।
परन्तु उनके प्रति करुणावान रहो, मित्रता नहीं।
मुदिता
जो लोग अच्छा काम कर रहे हैं, पुण्य का काम कर रहे हैं, जो गुणों से भरपूर और सौभाग्यशाली हैं, उनके साथ एक हो जाओ। उनकी उन्नति में प्रसन्न होने से प्रतिद्वंदता का भाव नहीं उभरेगा। जो लोग अच्छा काम कर रहे हैं, उनमें दोष निकालना बंद हो जायेगा। लोगों की ऐसी प्रवृत्ति होती है कि जैसे ही कोई कुछ बहुत अच्छा काम कर रहा होता है तब लोग उसमे कमियां और दोष निकालने लगते हैं कि वो यह काम इस तरह से और अच्छा हो जाता, ऐसे करना चाहिए था।
कम से कम वह कुछ तो कर रहे हैं, दोष निकालने वाले लोगों ने तो उतना भी नहीं किया होता है। ज्यादातर आलोचना वही लोग करते हैं जो स्वयं कुछ काम नहीं करते। जो लोग अच्छा काम कर रहे हैं, उनमें दोष मत देखो, उनके साथ प्रसन्न होओ। यदि कोई बहुत अच्छे से सेवा कर रहा है तो उन्हें ऐसे नहीं वैसे करना चाहिए, ऐसा नहीं करना, ऐसे दोष निकालने में हम अटक सकते हैं।
इस संस्था में यह गलत है, यह कमियां हैं, परन्तु तुम यह क्यों नहीं देखते की इन सब कमियों के वावजूद यह संस्था लोगों के उत्थान के लिए कितना कार्य कर रही है। हम दोष ढूंढ़ने के इस चक्कर में फंस सकते है, इसीलिए जो भी लोग अच्छा काम कर रहे हैं, उनके साथ प्रसन्न हो जाओ। यह तभी संभव है जब तुम उनके साथ एक हो जाओ। तुम्हें यह ऐसे ही समझना होगा जैसे दायाँ हाथ कुछ अच्छा करे तो बायां हाथ उसे शाबाशी दे। बायां हाथ दाएं हाथ को या तो पकड़ कर रोक सकता है या फिर उसका सहयोग कर सकता है। जो दायाँ हाथ कर सकता है वह बायां नहीं कर सकता और जो बायां हाथ कर सकता है वह दायाँ हाथ नहीं। सहयोग तभी संभव है जब दोनों हाथ एक साथ हो।
मुदिता अर्थात प्रसन्नता, ऐसे लोगो के साथ एक हो जाओ और प्रसन्न रहो।
उपेक्षा
ऐसे लोग जो गलत काम कर रहे हैं, पाप कर रहे हैं, उनकी उपेक्षा कर दो, उन पर ध्यान मत दो। कोई ऐसा कुछ कहे जो बेकार है, सत्य नहीं है, उसको झटकार दो। ऐसे लोग और उनकी बातें मन में रखने लायक नहीं है।
प्रायः हम इसका विपरीत करते हैं, जो लोग कुछ अच्छा काम कर रहे होते हैं, उनके बारे में हम नहीं सोचते, बल्कि ऐसे लोग जो कुछ गलत काम करते हैं, उनके बारे में सोचते रहते हैं। तुम सारे अखबारों में देखोगे तो वह भी गलत कामों की ख़बरों से और उनकी कहानियों और विश्लेषणों से भरे रहते हैं। आजकल फिर भी यह जागरूकता आयी है की अच्छे कृत्यों और कहानियों को भी लोग छापने लगे हैं पर फिर भी नकारात्मक ख़बरों की तुलना में यह अभी भी बहुत कम होता है।
जब भी तुम लोगों को कुछ गलत करते देखो तब उन्हें सही सीख दो और फिर नजरअंदाज कर दो। उनकी उपेक्षा मात्र नहीं, वरन सही सीख देने के बाद उन्हें उनके हाल पर छोड़ दो। यदि हम ऐसे नहीं करते हैं तब हम उनकी बातों को मन में लिए फिरते हैं। हमें लगता हैं की कोई व्यक्ति ठीक नहीं हैं, यह सोचते सोचते हम भी गलत हो जाते हैं।
ऐसे सोच सोच कर तुम अपना आपा खो बैठते हो और स्वयं अधिक गलत हो जाते हो। तुम्हें ऐसे लगता है की वह व्यक्ति गलत है और मैं ही सही हूँ। तुम अपने भीतर देखोगे तो पाओगे की तुम भी खूब गलतियां करते हो।
जब भी तुम किसी की और ऊँगली दिखाकर उनकी गलती बताते हो तो यह जान लो की तुम्हारे स्वयं की और तीन उँगलियाँ होती हैं। गलत करने वालों की उपेक्षा करना श्रेष्ठ है।
महृषि पतंजलि मन के बड़े अच्छे विशेषज्ञ है। महृषि पतंजलि जानते थे की कोई भी व्यक्ति सभी के लिए एक जैसा भाव नहीं रख सकते और भावनाएं बदलती रहती हैं और पोषित भी की जा सकती हैं। तुम सभी में एक ही आत्मा तो देख सकते हो, परन्तु शुरुआत में अलग अलग तरह के लोगों के लिए उनकी स्थिति के अनुसार अलग अलग भाव रखना अच्छा है। भावनाएं जब तक पूरी तरह से पोषित हो कर स्वयं के आत्मस्वरूप में स्थित नहीं होती तब तक मैत्री, करुणा, मुदिता और उपेक्षा के अलग अलग भाव रखकर चित्त को सुखद रखा जा सकता है और इस अभ्यास से एक सिद्धांत पर ध्यान रखना सुलभ हो जाता है, एकतत्त्वाभ्यास लगने लगता है।
यदि यह भी मुश्किल लगे, तब पतंजलि कहते हैं की मैं तुम्हे एक और सूत्र देता हूँ। वह सूत्र क्या है, जानने के लिए पढ़िए अगला ज्ञान पत्र