सूत्र 19: भवप्रत्ययो विदेहप्रकृतिलयानाम्
योगसूत्र के उक्त सूत्र में समाधियों के विभिन्न प्रकार बताते हुए महृषि पतंजलि कहते हैं, समाधि का अनुभव या तो आँखें बंद कर स्वयं में स्थित होने से होता है या फिर जब तुम किसी पर्वत या सूर्यास्त को निहार रहे होते हो, तब प्रकृतिलय समाधि घटने की संभावना होती है।
ऐसे में तुम पूरी तरह से प्रकृति और वर्तमान क्षण के साथ विलय हो जाते हो। तुम सूर्यास्त को देख रहे हो और देखते देखते तुम और सूर्य ही रह जाते हो, धीरे धीरे तुम ही पूरी तरह से विलीन हो जाते हो और सूर्य ही रह जाता है।
क्या तुम्हे यह अनुभव कभी हुआ है? तुम एक पर्वत को देखते देखते स्वयं को ही भूल जाते हो, उस समय तुम उस पर्वत के साथ एकाकार हो जाते हो। इसी तरह एक झील में तुम जब पानी की लहरों को निहारते हो तब मन में कोई विचार नहीं रह जाता, मन ही नहीं रहता। यही अनुभव प्रकृतिलय समाधि है।
परन्तु यह करते हुए बीच में तुम्हारा मन आ जाये और बोले की अरे में क्या कर रहा हूँ, यह पानी है, इसे निहार कर में क्या बेवकूफी कर रहा हूँ, मुझे कुछ और करना चाहिए। या फिर मन किसी बात या व्यक्ति के बारे में सोचने लगे तब तुम प्रकृति के साथ एकाकार नहीं हो पाते हो।
प्रकृतिलय भी एक बड़ा अभ्यास है। लोग घंटों तक प्रकृति के साथ बैठ कर प्रकृति को लगातार देखते जाते हैं, जब तक की सभी विचार समाप्त न हो जाये। इसके बाद मात्र एक शून्यता रह जाती है।
तुम यह प्रयोग के तौर पर भी कर सकते हो, जब तुम बहुत चिंतित या दुखी हो तब किसी नदी अथवा झील के किनारे जा कर बैठो। वहां पानी की लहरों को देखते जाओ तो तुम पाओगे कि तुम्हारा मन पानी के बहाव के साथ चुम्बकीय आकर्षण से बंधा सा खिंचता जा रहा है। फिर तुम पलट कर नदी के दूसरे किनारे पर बैठोगे तो पाओगे कि मन पानी के साथ दूसरी दिशा में खिंचा जा रहा है। मन की सारी दुविधा, द्वन्द और दुःख पानी के साथ बह जाता है।
कभी कभी ऐसा होता है कि कोई आत्महत्या करने पानी के किनारे जाए, तब पानी को देखते रहने मात्र से उनका मन बदल जाता है, वो आत्महत्या नहीं कर पाते हैं। बहते हुए पानी का नजारा ही उनके मन के पूरे भाव, प्राणस्तर को बदल देता है। ऐसा ही अनुभव समुद्र के किनारे हो सकता है, लगातार लहरों को देखते देखते भी मन में अलग ताजगी आ जाती है। लहरें जैसे तुम्हारे मन से कुछ धुल कर ले जाती हैं और तुम्हारे मन को हल्का कर देती हैं। यही प्रकृतिलय समाधि है जब तुम प्रकृति के साथ एकाकार हो जाते हो। विदेहा अर्थात यह जानना की तुम शरीर नहीं हो। यह मेरा शरीर है पर मैं शरीर मात्र नहीं हूँ। इस सूत्र को शताब्दियों से लोगो ने बार बार गलत समझा है।
पतंजलि कहते हैं कि यह प्रक्रियाएँ किन्ही किन्ही लोगो(लोगों) को ही किसी विशेष समय पर घट सकती है। यह प्रतिदिन अभ्यास के लिए नहीं है, हर व्यक्ति और हर समय के लिए नहीं है परन्तु विशेष समय में किन्ही किन्ही के साथ यह समाधि की अवस्था हो सकती है।
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(यह ज्ञान पत्र गुरुदेव श्री श्री रवि शंकर जी के पतंजलि योग सूत्र प्रवचन पर आधारित है। पतंजलि योग सूत्रों के परिचय के बारे में अधिक जानने के लिए यहां क्लिक करें। )