भारत में एक बहुचर्चित मुद्दा भोजन के आस पास घूमता है - इसमें किए जाने वाले बदलाव, पौधों को इंजेक्शन लगाकर, जैविक और रासायनिक रूप से उगाए गए आदि। हम कैसा भोजन खा रहे हैं और अपने परिवारों को खिला रहे हैं, इस पर हैरान करने वाली बहस को बेहतर ढंग से समझने की आवश्यकता है ।
तीन वर्ष पहले, स्वदेश चौधरी, विज्ञान में एक स्नातक और मध्य प्रदेश के बेतूल ज़िले का गृहस्थ युवा, एक पढ़ा लिखा किसान था। “मैंने वस्तुतः रसायनों के उपयोग से अपनी भूमि ख़राब कर ली थी। मुझे 2010 में प्राकृतिक कृषि से अवगत कराया गया। “ वह यह जानकारी साझा करते हुए आगे बताते हैं“ पहले मैंने 2 एकड़ के एक खरब हो चुके भूमि खंड से शुरू किया और आज मैं अपनी पूरी की पूरी 30 एकड़ ज़मीन पर प्राकृतिक खेती करता हूँ।”
प्रतिबद्धता : काग़ज़ से खेत तक
“प्रायः रसायन उत्पादक कंपनियाँ अपने उत्पादों को लेकर किसानों के पास आती हैं। मैंने भी इन विभिन्न रसायनों के उपयोग से प्रयोग करने का निर्णय लिया। इसने मुझे भ्रमित कर दिया, मेरे खेत को ख़राब किया और मुझे तोड़ दिया।“ स्वदेश कहते हैं।
श्री श्री प्राकृतिक कृषि कार्यक्रम के रूप में मुझे आशा दिखाई दी। स्वदेश कहते हैं कि परस्पर संवादात्मक सत्रों जहाँ ने मुझे अपने सारे संशयों को दूर करने में सहायता की, वहीं दूसरे किसानों द्वारा अपने अनुभव साझा करने से मेरा प्राकृतिक खेती में विश्वास और दृढ़ हुआ ।
श्री श्री प्राकृतिक कृषि कार्यक्रम में भाग लेते हुए स्वदेश ने महाराष्ट्र में कई आदर्श फार्मों को जाकर देखा। “उनके परिणाम देख कर मैं अति प्रभावित था। यह सब इतना सरल और सस्ता भी था। वहाँ किसानों ने प्राकृतिक खेती की दिल को छूने वाली सफलता गाथाएँ साझा की। उस यात्रा ने मेरे सभी संशय मिटा दिए“ वे कहते हैं।
यद्यपि स्वदेश ने केवल 2 एकड़ पर प्रयोग करने की ही प्रतिबद्धता की थी, जब खाद डालने का चरण आया तो भी वह अनिच्छुक ही था। दोनों प्रकार की खेती में से चुनना है, इस पर निर्णय प्रक्रिया के दौरान उसने अपनी ज़मीन पर कुछ मृत गिलहरियों और पक्षियों को देखा। अधिक सघन निरीक्षण पर उसने पाया कि आस पास बहुत से कीट और साँप भी मर चुके थे। इसका कारण बाद में मिल गया : वो रसायन जो स्वदेश ने अधिक उपज प्राप्त करने के लिए अपनी गन्ने की फसल पर छिड़काव किए थे !
“यह मेरे लिए निर्णायक क्षण बन गया। मैं जान गया कि मुझे अपना तरीक़ा बदलना ही है।” वह साझा करते हैं।
किसानों ने प्राकृतिक खेती का गुणगान किया
“पहले साल में कोई 12 क्विंटल गेहूं की पैदावार हुई। दूसरे वर्ष में उत्पाद 2 क्विंटल और बढ़ गया। ”वह मुस्कुराते हुए बताते हैं। स्वदेश को अपनी ज़मीन और नर्म मिट्टी पर गर्व है। इसको हाथों से ही आसानी से खोदा जा सकता है और इसमें केंचुए भी देखे जा सकते हैं, जो मिट्टी के लिए बहुत आवश्यक हैं ।
“मेरे अनुभव में, रासायनिक खेती करना बहुत हानिकारक है। किसानों को यह समझना होगा कि रसायन मिट्टी को, इसके सक्रिय जीवाणुओं को, फसलों की सेहत को तथा पर्यावरण को कितना नुक़सान पहुँचाते हैं।” कंधे उचकाते हुए स्वदेश कहते हैं।
प्राकृतिक खेती करने से 300 रुपये प्रति एकड़ से अधिक खर्च नहीं आता। रसायनों के उपयोग करने पर लागत 2000 रुपये प्रति एकड़ तक बढ़ सकती है। स्वदेश बताते हैं कि ऐसा इसलिए है क्योंकि सभी खाद और उर्वरक घर पर उपलब्ध संसाधनों से ही बनाए जा सकते हैं। तथा “अंतर-फसल सिद्धांत के उपयोग से मुझे अपने निवेश से दोगुना लाभ मिलताहै।“
समय समय पर आने वाली समस्याओं के बावजूद, सकारात्मक नतीजों और सकारात्मक सोच ने स्वदेश को आगे बढ़नेमें सहायता की है। ”मैं सुदर्शन क्रिया का अभ्यास करता हूँ और दूसरे किसानों को भी खेती का तरीक़ा बदलने में सहायताकरता हूँ,” कहते हुए वो जोड़ते हैं, “केवल प्राकृतिक रूप से उत्पन्न खाद्य सामग्री तथा प्राकृतिक खेती ही मानवता कोस्वस्थ तरीक़े से पालने में अनुकूल है। “
300 - लागत कम से कम 300 रुपये है और अधिकतम 500 रुपये तक जा सकती है ।
अंतर फसल - कृषि में , कुछ फसलों को वातावरण से नाइट्रोजन लेनी होती है जबकि कुछ फसलें नाइट्रोजन का वातावरण में विसर्जन करती हैं । किसान इन दोनों को मिला जुला कर उगाते हैं ।
लेख आभार : मोनिका पटेल
प्रकाशित : 29 अगस्त , 2013