उत्कंठा का होना अपने आप में बहुत अच्छा है। सांसारिक वस्तुओं के लिए उत्कंठा, हमें जड़ या गतिहीन बना देती है जबकि अनंत के लिए उत्कंठा, हमें जीवन से भर देती है। जब उत्कंठा मर जाती है तब हमारे भीतर जड़ता जन्म लेने लगती है। परन्तु उत्कंठा एक प्रकार की पीड़ा यानि संताप भी ले कर आती है।
इस पीड़ा से बचने के लिए हम उत्कंठा को दूर करते रहते हैं। उत्कंठा की इस पीड़ा को सहते हुए आगे बढ़ते जाना एक कौशल है। उत्कंठा से निकलने के लिए किसी शार्टकट उपाय को पाने का प्रयास न करें। अपनी उत्कंठा को तुच्छ या छोटा न बनाएं। इसलिए इसे उत्कंठा कहा जाता है। सच्ची उत्कंठा, अपने आप में परमानन्द के क्षण ले कर आती है।
प्राचीन काल में कथा अथवा कहानी गा कर और सुन कर उत्कंठा को जीवित रखा जाता था। जब उत्कंठा संबंधों से परे हो जाती है तब मूल्यांकन यानि जजमेंट, ईर्ष्या एवं अन्य सभी नकारात्मक भाव छूट जाते हैं। केवल विवेक और आत्मज्ञान के माध्यम से ही हम संबंधों के परे जा सकते हैं। अक्सर लोग सोचते हैं कि विवेक में उत्कंठा की उपस्थिति नहीं होती है - नहीं ! ऐसा विवेक शुष्क होता है। सच्चे विवेक के साथ उपजी उत्कंठा जीवन को सरस बना देती है। दिव्यता नि:संदेह रसपूर्ण है! उत्कंठा हमें सबका मंगल करने की शक्ति देती है। अपने भीतर की उत्कंठा से समस्त सृष्टि का मंगल करना ईश्वर तुल्य है।