योग के बारे में (yoga)

दुःख निवारण

जब यह जान लेते हैं कि संसार में सब कुछ दुःख ही है तब दुःख निवारण का उपाय, दुःख को मिटाने का तरीका क्या है?

महृषि पतंजलि कहते हैं -

सूत्र 16: हेयं दुःखमनागतम्॥१६॥

दुःख के मूल कारण को मिटाना आवश्यक है। जो दुःख अभी जीवन में आया नहीं है, जो प्रस्फुरित नहीं हुआ है, वह दुःख भी उसके बीजरूप में, जड़ में ही समाप्त कर देना चाहिए। यह कैसे कर सकते हैं?

 

सूत्र 17: द्रष्टृदृश्ययोः संयोगो हेयहेतुः॥१७॥

दुःख का मुख्य कारण है यह भूल जाना कि तुम स्वयं तुम्हारे चार ओर के जगत से पृथक हो। दृष्टा और दृश्य को भिन्न भिन्न न देखना, स्वयं को चारों तरफ की विषय वस्तुओं से अलग न देख पाने से ही तुम्हारी समस्याएं शुरू होती हैं। 

सामान्यतः हम अपना जीवन कहीं और ही देकर रखते हैं। हम अपने जीवन को भी अपने पास नहीं रखते हैं। पुराने ज़माने की बहुत सी ऐसी कहानियां हैं जिनमें राजा की जान एक सुदूर छोटे से द्वीप पर एक महल में एक तोते में रहती है। ऐसी कहानी में यदि तुम तोते को मार दोगे तो राजा भी मर जाता है।  भारत और चीन में ऐसी कहानियां प्रचलित हैं। जिनमें राजा की जान, उस व्यक्ति में न हो कर किसी सुदूर तोते में या कहीं और छुपी होती है और राजा को मारने के लिए बड़े यत्न करने के बाद कोई नायक वहां पहुँच कर उस तोते को मारता है। ऐसे तोते की मृत्यु होते ही कहीं दूर अपने राज्य में वह राजा भी मर जाता है।

जीवन को हम अपने स्वयं में न रख कर कहीं और ही रख देते हैं, जैसे किसी बैंक के खाते में। लोग बैंक के खाते में अपनी पूँजी ही नहीं, साथ में अपना जीवन भी जमा करवा के रखते हैं। कहीं कुछ बैंक डूब जाए, पूँजी चली जाए तो उनकी हृदयगति ही रुक जाती है। क्या तुम यह समझ रहे हो?

जिसको भी तुम जीवन से अधिक महत्त्व देते हो, कोई वस्तु, विषय, जिसको तुम अपने जीवन से अधिक महत्वपूर्ण मानते हो, वही तुम्हारे जीवन में दुःख का कारण बनता है।

इसीलिए जब तुम दृष्टा और दृश्य के भेद को जानते हो, जीवन और जगत को अलग अलग समझते हो, मैं शरीर नहीं हूँ, यह अनुभव करते हो, तब वास्तव में ध्यान घटने लगता है।

 

पतंजलि आगे कहते हैं -

सूत्र 18: प्रकाशक्रियास्थितिशीलं भूतेन्द्रियात्मकं भोगापवर्गार्थं दृश्यम्॥१८॥

इसका अर्थ यह नहीं है कि तुम्हें इस संसार को छोड़ कर भाग जाना है। यह संसार तुम्हारे आनन्द के लिए ही है, पतंजलि यह बहुत स्पष्टता से कहते हैं। प्रकृति की सुंदरता तुम्हारे निहारने के लिए ही है। तरह तरह के स्वादिष्ट भोजन भी तुम्हारे स्वाद के लिए ही हैं। यह सारा संसार तुम्हारे आनंद के लिए ही है पर आनंद लेते समय स्वयं को मत भूलो। तुम इन सब से पृथक हो, अलग हो, यही जानना विवेक है।

क्या तुम यह समझ रहे हो?

प्रकाशक्रियास्थितिशीलं, यह प्रत्यक्ष जगत प्रकाशित है। यहाँ हर एक चीज तुम्हें सन्देश देती है कि चेतना का विस्तार कितना विशाल है। इस संसार का हर पहलु उस ईश्वर की ही अभिव्यक्ति है और सब कुछ निरंतर क्रियाशील है। प्रकाश अर्थात प्रकट होना, प्रत्यक्ष होना, सब कुछ उसी चेतना से प्रकट हुआ है, जैसे वृक्षों से पुष्प और फल स्वतः ही प्रकट हो जाते हैं।      

इस ब्रह्माण्ड में सब कुछ क्रियाशील है, कुछ भी स्थिर नहीं है। संसार में कुछ भी अस्थिर और अचल है ही नहीं, यहाँ तक कि पहाड़ पर्वत जो अचल दिखते हैं वो भी स्थिर नहीं हैं, क्रियाशील हैं। हर अणु परमाणु भी क्रियाशील है।

स्थिति, अर्थात यह सब क्रमोन्नति के अलग अलग स्थितियों से गुजरता है। संसार में सब कुछ अपनी अपनी स्थितियों में विशेष सिद्धांतों और नियमों के अनुसार चलता है। भूतेन्द्रियात्मकं, यह पूरा संसार पांच तत्त्वों से बना है। पांच तरह के तत्त्व, पांच ज्ञानेन्द्रियाँ और पांच कर्मेन्द्रियाँ संसार को निर्मित करती हैं। मन भी इसी संसार का ही एक हिस्सा है।  भोगापवर्गार्थं, यह सारा संसार तुम्हें आनंद और आराम प्रदान करने के लिए ही है। जो भी तुम्हें सुख देता है वह आराम भी देता है। क्या तुम यह समझ रहे हो? ऐसे यदि आराम न हो तो सुख भी दुःख ही बन जाता है।

जैसे मान लो कि तुम्हें गुलाब जामुन बहुत पसंद हो। २-३ गुलाब जामुन खाने में तुम्हें बहुत अच्छा लगता है।  तीन चार गुलाब जामुन के बाद पांचवा गुलाब जामुन तुम्हें थोड़ा ज्यादा लगता है और उसके बाद यदि तुम्हें सातवां, आठवां, बारहवां, पन्द्रहवाँ गुलाब जामुन खाने को मिले। वही गुलाब जामुन जो तुम्हें अभी तक सुख देता था, अब तुम्हें परेशान करने लगेगा। यदि तुम्हें बीस गुलाब जामुन खाने के लिए मजबूर किया जाए तब तुम अपना सर पकड़ लोगे और बोलोगे की अब मुझे इससे राहत चाहिए, गुलाब जामुन मुझसे दूर ही रखो, बस बहुत हो गया।

ऐसा ही संगीत के साथ है। तुम्हें मधुर संगीत सुनना पसंद है पर तुम कितना देर तक सुनते रह सकते हो? एक दो घंटे या चौबीस घंटे, सप्ताह के सात दिन, तुम्हें उससे भी राहत की सांस के लिए संगीत बंद करना ही पड़ता है।

जो मधुर संगीत तुम्हें सुख देता है यदि उसकी अति की जाए तो वही संगीत दुःख देने लगता है। क्या तुम यह समझ रहे हो? संगीत के सुख के लिए तुम्हें सुख के साथ उससे राहत भी चाहिए। यह पूरा संसार तुम्हें आनंद देता है और साथ साथ आराम भी प्रदान करता है। तुम्हें हर सुख से कभी न कभी आराम या राहत चाहिए ही होता है नहीं तो सुख दुःख में ही बदल जाता है।

 

 

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