सूत्र 40: शौचात्स्वाङ्गजुगुप्सा परैरसंसर्गः॥४०॥
व्यक्तिगत शौच और स्वच्छता रखने से तुम्हारा भौतिक शरीर से मोह उठ जाता है। तुम अपने आंतरिक सूक्ष्म शरीर, प्रकाश स्वरुप के प्रति और अधिक जागरूक हो जाते हो, स्वाङ्ग-जुगुप्सा। शरीर के अलग अलग अंगों के प्रति इतनी उत्कट इच्छा मन में इसलिए उठती है क्योंकि हम शरीर को पूरी तरह से नहीं समझते हैं। इस त्वचा के भीतर सब मांस, हड्डी और खून की धमनियां ही हैं। शरीर को समग्रता से न समझ पाने से तरह तरह की वासनाएं और कामुकता उठती है। ऐसे कामुक लोग किसी भी चीज से संतुष्ट नहीं होते, एक के बाद एक वासनायें उन्हें घेरती रहती हैं और वो हिंसक बन जाते हैं।
इसीलिए दुनिया भर में इतने ज्यादा अपराध शरीर से जुड़े हुए होते हैं। लोग दुष्कर्म अथवा हत्या तभी करते हैं जब उन्हें शरीर की एक समग्र समझ नहीं होती है।
सूत्र 41: सत्त्वशुद्धिसौमनस्यैकाग्र्येन्द्रियजयात्मदर्शनयोग्यत्वानि च॥४१॥
शौच से ही सत्त्व शुद्धि होती है। मन शुद्ध और सात्विक हो जाता है। विचारों में स्पष्टता आती है और बुद्धि प्रखर होती है। सौमनस्य, मन में समता आती है और एकाग्रता बढ़ती है। शौच से ही इन्द्रियों पर नियंत्रण होता है और 'आत्मदर्शनयोग्यत्वानि'- स्वयं के सच्चे स्वरुप को जानने की क्षमता आती है।
तुम यह प्रयोग कर के भी देख सकते हो। जब भी तुम बहुत दुखी अथवा निराश हो, तब किसी के भी संपर्क में न रहने से बड़ा आराम मिलता है। यह बड़ा प्राकर्तिक और स्वभावगत है। जब भी तुम परेशान और दुखी होते हो, तब तुम सबसे अलग होकर थोड़ा अपने साथ अकेले रहना चाहते ही हो। इस तरह थोड़े समय के लिए किसी से भी संपर्क में न रहने से कुछ हद तक भीतर शुचिता आती है। इसी तरह सभी संपर्क समाप्त होने से आत्मज्ञान प्रखर हो उठता है। मन में एकाग्रता और सोच विचार में बड़ी स्पष्टता आती है।
तुम यह प्रयोग कर के भी देख सकते हो। जब भी तुम बहुत दुखी अथवा निराश हो, तब किसी के भी संपर्क में न रहने से बड़ा आराम मिलता है। यह बड़ा प्राकर्तिक और स्वभावगत है। जब भी तुम परेशान और दुखी होते हो, तब तुम सबसे थोड़ा अलग होकर अपने साथ अकेले रहना चाहते ही हो। इस तरह थोड़े समय के लिए किसी से भी संपर्क में न रहने से कुछ हद तक भीतर शुचिता आती है। इसी तरह सभी मानसिक संपर्क भी समाप्त हो जाने से आत्मज्ञान प्रखर हो उठता है। मन में एकाग्रता और सोच विचार में बड़ी स्पष्टता आती है।
इसीलिए दुनिया की महानतम कृतियाँ एकांत में ही सृजित की गयी हैं। जब भी कोई विशेष कविता रची जाती है तो कवि उसे अकेले एकांत में ही लिखता है। इसी तरह एक चित्रकार को कोई विशेष कृति बनाने हेतु भी अकेले ही बैठना होता है। तुम भी यदि दो-तीन दिन किसी के भी संपर्क में न रहो तो मन स्वयं ही अपने स्वभाव में स्थित होने लगता है। यह सब शौच का प्रभाव है परन्तु शौच को भी लोग चरम सीमा के परे तक खींच ले जाते हैं, किसी को स्पर्श नहीं करने देते और भागते फिरते हैं। पतंजलि के इस विज्ञान को भी लोग तोड़ मरोड़कर दुरूपयोग करते हैं।
सूत्र 42: सन्तोषादनुत्तमसुखलाभः॥४२॥
संतोष से अनुपम सुख की प्राप्ति होती है, अनुत्तम सुखलाभः का अर्थ है सबसे उत्तम सुख की प्राप्ति। प्रसन्न और संतुष्ट रहने की आदत डालो। इससे तुम्हें दुःख नहीं होगा। ये केवल ऊपरी मनोदशा बनाना नहीं है बल्कि ऐसा नजरिया कि, "अच्छा, मैं खुश रहूँगा।" और "अच्छा, कुछ तो हो जायेगा", "मैं इस परिस्थिति से भी निकल ही जाऊँगा।" इससे तुम्हें अतुलनीय प्रसन्नता प्राप्त होगी, ऐसी प्रसन्नता जिसकी तुलना ही न की जा सके।
सूत्र 43: कायेन्द्रियसिद्धिरशुद्धिक्षयात्तपसः॥४३॥
तपस से शरीर और इन्द्रियों की शुद्धि होती है। जब तुम उपवास रखते हो तो वह भगवान को प्रसन्न करने के लिए अथवा स्वर्ग जाने या आत्मज्ञान प्राप्त करने के लिए नहीं बल्कि ऐसा करने से शरीर मजबूत होता है। उसकी प्रतिरोधक क्षमता बढ़ती है। तपस से ही शरीर और इन्द्रियां शुद्ध होती हैं और अशुद्धि क्षय, अशुद्धियों का नाश होता है।
सूत्र 44: स्वाध्यायादिष्टदेवतासम्प्रयोगः॥४४॥
स्वाध्याय से, स्वयं के भीतर के खालीपन और चैतन्य स्वरुप आकाश तत्त्व के प्रति जागरूक होने से तुम उस ईश्वरीय तत्त्व को प्रतिबिंबित करने लगते हो। तुम्हें ईश्वरीय चेतना का अनुभव होने लगता है और वही चैतन्य तरह तरह के देवी देवताओं के रूप में प्रखर होने लगता है।
सूत्र 45: समाधिसिद्धिरीश्वरप्रणिधानात्॥४५॥
ईश्वर प्रणिधान, ईश्वर के प्रति अटूट भक्ति से समाधि का अनुभव सिद्ध होने लगता है।
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(यह ज्ञान पत्र गुरुदेव श्री श्री रवि शंकर जी के पतंजलि योग सूत्र प्रवचन पर आधारित है। पतंजलि योग सूत्रों केपरिचय के बारे में अधिक जानने के लिए यहां क्लिक करें। )